गोस्वामी तुलसीदास
जन्म :- विक्रम संवत् 1554 (English -1611 AD)
मृत्यु :- विक्रम संवत् 1680 (English -1743 AD)
प्रयाग के पास बांदा जिले में राजापुर नामक एक ग्राम है। वहाँ आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। विक्रम संवत 1554 की श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन अब उक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं भाग्यवान संपत्ति के यहां 12 महीने तक गर्भ रहने के पश्चात गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ। जन्म के समय बालक तुलसीदास रोए नहीं किंतु उनके मुख से राम का शब्द निकला। उनके मुंह में 32 दांत मौजूद थे। उनका डीलडोल पांच साल के बालक जैसा था। इस प्रकार के अद्भुत बालक को देखकर पिता अमंगल की शंका से भयभीत हो गए और उसके संबंध में कई प्रकार की कल्पना ही करने लगे। माता हुलसी को यह देखकर बड़ी चिंता हुई। उन्होंने बालक के अनिष्ट की आशंका से दसवीं की रात को नवजात शिशु को अपनी दासी के साथ उसके ससुराल भेज दिया और दूसरे दिन स्यवं इस संसार से चल बसी। दासी जिसका नाम चुनिया ने बड़े प्रेम से बालक का पालन पोषण किया। जब तुलसीदास लगभग साढे 5 वर्ष के हुए चुनिया का भी देहांत हो गया। अब तो बालक अनाथ हो गया और द्वार द्वार भटकने लगे। इस पर जगत जननी पार्वती को उस होनहार बालक पर दया आई। वह ब्राह्मणी का वेश धारण कर प्रतिदिन उसके पास आती और उसे अपने हाथों भोजन करा जाती।
इधर भगवान शंकर जी की प्रेरणा से राम शैल पर रहने वाले श्री अनंतानंद जी के प्रिय शिष्य श्री नरहरी जी ने उस बालक को ढूंढ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वह अयोध्या ले गए और वहाँ संवत 1561 पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री मंत्र का जाप किया जिसे देख कर सब लोग चकित हो गए। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पांच संस्कार करके रामबोला को राम मंत्र की दीक्षा दी और अयोध्या में रहकर उन्हें विद्या अध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि काफी प्रखर थी। एकबार गुरूमुख से जो सुन लेते थे उन्हें कण्ठस्थ हो जाता था। यहाँ से कुछ दिन बाद गुरु शिष्य दोनों सोरों पहुँचें। वहाँ नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन के बाद वे काशी चले आये। काशी में शेष सनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पंद्रह बर्ष तक वेद वेदांग का अध्ययन किया। फिर वे अपने विद्यागुरू से आज्ञा लेकर आपनी जन्म भूमि को लौट आये।वहाँ आकर देखा तो उनका परिवार नष्ट हो चूका था। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।
संवत् 1583 को भारद्वाज गोत्र की एक सुन्दरी कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ और वे सुखपूर्वक अपनी नवविवाहिता वधू के साथ रहने लगे। एकबार उनकी पत्नी अपने भाई के साथ अपनी मायके आई। पीछे पीछे तुलसीदास भी वहाँ पहुँच गये। उनकी पत्नी ने इसपर उन्हें काफी धिक्कारते हुए कहा कि मेरे हाड़ मांस के शरीर में जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उससे आधी भी आसक्ति यदि भगवान में होती तो तुम्हारा बेड़ा पार हो गया होता।
इस बात पर तुलसीदास को काफी ग्लानि हुई। वहाँ से तुलसीदास प्रयाग आये। वहाँ साधुवेश धारण कर तीर्थाटन करते हुए काशी पहुँचे।
काशी में तुलसीदास रामकथा कहने लगे। वहाँ एकदिन उन्हें एक अदृश्य आत्मा मिला जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बताया। हनुमान जी से मिलकर रघुनाथ जी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा कि चित्रकूट में उनके दर्शन होंगे। फिर चित्रकूट पहुँच कर रामघाट पर अपना आसन जमाया। एकदिन वे प्रदक्षिणा करने निकले थे। मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो सुन्दर राजकुमार घोडों पर सवार धनुष बाण लेकर जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर मंत्र मुग्ध हो गये परंतु पहचान ना सके। बाद में हनुमान जी ने उन्हें सारा भेद बताया तो वे बड़ा पश्चाताप करने लगे।
संवत् 1603 की मौनी अमावस्या बुधवार के दिन भगवान श्रीराम ने बालक रूप में प्रकट होकर तुलसीदास से कहा कि बाबा! हमें चंदन दो। हनुमान जी ने सोचा कि इसबार भी तुलसीदास धोखा ना खा जाये इसलिए उन्होंने तोते कि रूप धारण कर यह दोहा कहा -
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुवीर।।
तुलसीदास उस अद्भुत छबि को निहारकर शरीर की सुध भूल गए।
भगवान ने अपने हाथ से चंदन लेकर अपने तथा तुलसीदास के मस्तक पर चंदन लगाया और अंतर्धान हो गये।
संवत् 1628 में तुलसीदास हनुमान जी की आज्ञा से अयोध्या की ओर चल पड़े। इन दिनों प्रयाग में माघ मेला था। वहाँ कुछदिन वे ठहर गये। मेले के छह दिन के बाद एक बट वृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ से वे काशी चले आये और प्रहलाद घाट पर एक ब्राह्मण के घर रहने लगे। वहाँ उनके अंदर कवित्व शक्ति का स्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्म रचना करने लगे। परन्तु दिन में जितने भी पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास को स्वप्न आया। भगवान शंकर ने आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास की नींद खुल गई और उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए।तुलसीदास ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। भगवान शिव ने कहा कि तुम अयोध्या में रहो और हिन्दी में काव्य रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। इतना कह कर शिव पार्वती अन्तर्धान हो गए। तुलसीदास उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से अयोध्या चले आये।
संवत् 1631 का आरम्भ हुआ। उस साल रामनवमी के दिन वैसा ही योग था जैसा त्रेतायुग में रामजन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदास ने श्रीराम चरित मानस की रचना प्रारंभ की। दो वर्ष, सात महीने, छब्बीस दिन में ग्रन्थ की समाप्ति हुई। संवत् 1633 के मार्ग शीर्ष शुक्ल पक्ष में राम विवाह के दिन सातों कांड पूर्ण हो गए।
इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्री राम चरित मानस सुनाया। रात को पुस्तक श्री विश्वनाथ जी के मंदिर में रख दी गई। सवेरे जब पट खोले गए तो उसपर लिखा हुआ पाया गया - "सत्यम् शिवम् सुन्दरम्"। उस समय उपस्थित लोगों ने "सत्यम् शिवम् सुन्दरम्" की आवाज कानों से सुनी थी।
इधर पंडितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईष्या हुई। ये दल बांध कर तुलसीदास की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिए दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास की कुटिया के आस पास दो वीर धनुष बाण लेकर पहरा दे रहे हैं।वे बड़े ही सुंदर, श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई। उन्होंने उसी समय चोरी छोड़ दिया और भजन करने लग गए। तुलसीदास ने अपने लिए भगवान को कष्ट हुआ जान कर आपनी कुटिया का सारा सामान दान कर दिया। पुस्तक को अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी।उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं, इस पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा।
पंडितों ने एखब फिर पुस्तक की परीक्षा का उपाय सोचा। भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद,उसके नीचे शास्त्र,शास्त्रों के नीचे पुराण और सबसे नीचे श्री राम चरित मानस रख दिया। मंदिर बंद कर दिया गया। प्रातकाल जब मंदिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्री राम चरित मानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। इसके बाद पंडित लज्जित होकर तुलसीदास से क्षमा मांगी।
तुलसीदास अब अस्सी घाट पर रहने लगे।
इसके बाद हनुमान जी ने उन विनय के पद रचने को कहा। इसपर तुलसीदास ने विनय पत्रिका लिखी और भगवान के चरणों में उसे समर्पित कर दिया।
संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को अस्सी घाट पर गोस्वामी तुलसीदास ने राम राम कहते हुए अपना शरीर त्याग दिया।
जन्म :- विक्रम संवत् 1554 (English -1611 AD)
मृत्यु :- विक्रम संवत् 1680 (English -1743 AD)
प्रयाग के पास बांदा जिले में राजापुर नामक एक ग्राम है। वहाँ आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। विक्रम संवत 1554 की श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन अब उक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं भाग्यवान संपत्ति के यहां 12 महीने तक गर्भ रहने के पश्चात गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ। जन्म के समय बालक तुलसीदास रोए नहीं किंतु उनके मुख से राम का शब्द निकला। उनके मुंह में 32 दांत मौजूद थे। उनका डीलडोल पांच साल के बालक जैसा था। इस प्रकार के अद्भुत बालक को देखकर पिता अमंगल की शंका से भयभीत हो गए और उसके संबंध में कई प्रकार की कल्पना ही करने लगे। माता हुलसी को यह देखकर बड़ी चिंता हुई। उन्होंने बालक के अनिष्ट की आशंका से दसवीं की रात को नवजात शिशु को अपनी दासी के साथ उसके ससुराल भेज दिया और दूसरे दिन स्यवं इस संसार से चल बसी। दासी जिसका नाम चुनिया ने बड़े प्रेम से बालक का पालन पोषण किया। जब तुलसीदास लगभग साढे 5 वर्ष के हुए चुनिया का भी देहांत हो गया। अब तो बालक अनाथ हो गया और द्वार द्वार भटकने लगे। इस पर जगत जननी पार्वती को उस होनहार बालक पर दया आई। वह ब्राह्मणी का वेश धारण कर प्रतिदिन उसके पास आती और उसे अपने हाथों भोजन करा जाती।
इधर भगवान शंकर जी की प्रेरणा से राम शैल पर रहने वाले श्री अनंतानंद जी के प्रिय शिष्य श्री नरहरी जी ने उस बालक को ढूंढ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वह अयोध्या ले गए और वहाँ संवत 1561 पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री मंत्र का जाप किया जिसे देख कर सब लोग चकित हो गए। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पांच संस्कार करके रामबोला को राम मंत्र की दीक्षा दी और अयोध्या में रहकर उन्हें विद्या अध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि काफी प्रखर थी। एकबार गुरूमुख से जो सुन लेते थे उन्हें कण्ठस्थ हो जाता था। यहाँ से कुछ दिन बाद गुरु शिष्य दोनों सोरों पहुँचें। वहाँ नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन के बाद वे काशी चले आये। काशी में शेष सनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पंद्रह बर्ष तक वेद वेदांग का अध्ययन किया। फिर वे अपने विद्यागुरू से आज्ञा लेकर आपनी जन्म भूमि को लौट आये।वहाँ आकर देखा तो उनका परिवार नष्ट हो चूका था। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।
संवत् 1583 को भारद्वाज गोत्र की एक सुन्दरी कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ और वे सुखपूर्वक अपनी नवविवाहिता वधू के साथ रहने लगे। एकबार उनकी पत्नी अपने भाई के साथ अपनी मायके आई। पीछे पीछे तुलसीदास भी वहाँ पहुँच गये। उनकी पत्नी ने इसपर उन्हें काफी धिक्कारते हुए कहा कि मेरे हाड़ मांस के शरीर में जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उससे आधी भी आसक्ति यदि भगवान में होती तो तुम्हारा बेड़ा पार हो गया होता।
इस बात पर तुलसीदास को काफी ग्लानि हुई। वहाँ से तुलसीदास प्रयाग आये। वहाँ साधुवेश धारण कर तीर्थाटन करते हुए काशी पहुँचे।
काशी में तुलसीदास रामकथा कहने लगे। वहाँ एकदिन उन्हें एक अदृश्य आत्मा मिला जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बताया। हनुमान जी से मिलकर रघुनाथ जी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा कि चित्रकूट में उनके दर्शन होंगे। फिर चित्रकूट पहुँच कर रामघाट पर अपना आसन जमाया। एकदिन वे प्रदक्षिणा करने निकले थे। मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो सुन्दर राजकुमार घोडों पर सवार धनुष बाण लेकर जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर मंत्र मुग्ध हो गये परंतु पहचान ना सके। बाद में हनुमान जी ने उन्हें सारा भेद बताया तो वे बड़ा पश्चाताप करने लगे।
संवत् 1603 की मौनी अमावस्या बुधवार के दिन भगवान श्रीराम ने बालक रूप में प्रकट होकर तुलसीदास से कहा कि बाबा! हमें चंदन दो। हनुमान जी ने सोचा कि इसबार भी तुलसीदास धोखा ना खा जाये इसलिए उन्होंने तोते कि रूप धारण कर यह दोहा कहा -
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुवीर।।
तुलसीदास उस अद्भुत छबि को निहारकर शरीर की सुध भूल गए।
भगवान ने अपने हाथ से चंदन लेकर अपने तथा तुलसीदास के मस्तक पर चंदन लगाया और अंतर्धान हो गये।
संवत् 1628 में तुलसीदास हनुमान जी की आज्ञा से अयोध्या की ओर चल पड़े। इन दिनों प्रयाग में माघ मेला था। वहाँ कुछदिन वे ठहर गये। मेले के छह दिन के बाद एक बट वृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ से वे काशी चले आये और प्रहलाद घाट पर एक ब्राह्मण के घर रहने लगे। वहाँ उनके अंदर कवित्व शक्ति का स्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्म रचना करने लगे। परन्तु दिन में जितने भी पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास को स्वप्न आया। भगवान शंकर ने आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास की नींद खुल गई और उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए।तुलसीदास ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। भगवान शिव ने कहा कि तुम अयोध्या में रहो और हिन्दी में काव्य रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। इतना कह कर शिव पार्वती अन्तर्धान हो गए। तुलसीदास उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से अयोध्या चले आये।
संवत् 1631 का आरम्भ हुआ। उस साल रामनवमी के दिन वैसा ही योग था जैसा त्रेतायुग में रामजन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदास ने श्रीराम चरित मानस की रचना प्रारंभ की। दो वर्ष, सात महीने, छब्बीस दिन में ग्रन्थ की समाप्ति हुई। संवत् 1633 के मार्ग शीर्ष शुक्ल पक्ष में राम विवाह के दिन सातों कांड पूर्ण हो गए।
इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्री राम चरित मानस सुनाया। रात को पुस्तक श्री विश्वनाथ जी के मंदिर में रख दी गई। सवेरे जब पट खोले गए तो उसपर लिखा हुआ पाया गया - "सत्यम् शिवम् सुन्दरम्"। उस समय उपस्थित लोगों ने "सत्यम् शिवम् सुन्दरम्" की आवाज कानों से सुनी थी।
इधर पंडितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईष्या हुई। ये दल बांध कर तुलसीदास की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिए दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास की कुटिया के आस पास दो वीर धनुष बाण लेकर पहरा दे रहे हैं।वे बड़े ही सुंदर, श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई। उन्होंने उसी समय चोरी छोड़ दिया और भजन करने लग गए। तुलसीदास ने अपने लिए भगवान को कष्ट हुआ जान कर आपनी कुटिया का सारा सामान दान कर दिया। पुस्तक को अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी।उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं, इस पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा।
पंडितों ने एखब फिर पुस्तक की परीक्षा का उपाय सोचा। भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद,उसके नीचे शास्त्र,शास्त्रों के नीचे पुराण और सबसे नीचे श्री राम चरित मानस रख दिया। मंदिर बंद कर दिया गया। प्रातकाल जब मंदिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्री राम चरित मानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। इसके बाद पंडित लज्जित होकर तुलसीदास से क्षमा मांगी।
तुलसीदास अब अस्सी घाट पर रहने लगे।
इसके बाद हनुमान जी ने उन विनय के पद रचने को कहा। इसपर तुलसीदास ने विनय पत्रिका लिखी और भगवान के चरणों में उसे समर्पित कर दिया।
संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को अस्सी घाट पर गोस्वामी तुलसीदास ने राम राम कहते हुए अपना शरीर त्याग दिया।
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